दुनिया भर में ट्रेडवार अभी ओर तेज होगा मगर नतीजा डॉलर की हार के रूप में सामने आएगा। अगर आप बारीकी से अध्ययन करते हैं तो आपको भलीभांति यह आभास होने लगता है कि दुनिया का रुख असल में किस ओर जा रहा है
हालांकि इंटरनेशनल मीडिया में अमेरिका के कदमों को जिस तरह अमेरिकी नीतियों की जीत के रुप में दर्शाया जा रहा है यह इस सदी का एक बड़ा झूठ है अर्थात अमेरिका ने जिस प्रकार की नीतियों को आगे बढ़ाया है वह नीतियां खुद अमेरिका के अंदर दोहरा असर डालेंगे एक तरफ वहां की बड़ी कंपनियां हैं जो तमाम दुनिया में कारोबार करती हैं बढे घाटे की ओर अग्रसर होंगी। दूसरी ओर वहां की मूल जनता है जो कंपनियों द्वारा शोषित है उनके हालात बहतर होंगे।
अमेरिकी फर्स्ट नीति के तहत युद्ध और व्यापार युद्ध धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा मगर इसके प्रभाव का अंदाजा होने लगा है। जैसे कि विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के आधार पर देखा जाए तो साबित होता है कि दुनिया के बहुत सारे देशों में विदेशी मुद्रा के रूप में संरक्षित डॉलर अब कम होने लगा है।
अगर इसी बात को आधार माना जाए और कुछ नई संधियों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि तुर्की ईरान के बीच नए व्यापार समझौते में डॉलर की उपयोगिता को कम करते हुए दोनों देशों की अपनी मुद्रा या रूबल, युवान, और सोने में लेन-देन की बात तय करने की ओर बढ़ रहे हैं। उसी तर्ज पर ईरान और भारत के बीच भी कुछ संध्या हैं ईरान चीन और रूस के बीच भी डॉलर के लेनदेन को कम करते हुए सोना या अपने निजी मुद्रा के प्रतिशत में व्यापार करने की रफ़्तार को आगे बढ़ाया जा रहा है।
रूस चीन के यह प्रयास साबित करते हैं कि आने वाले दिन डॉलर की उपयोगिता को नगण्य करने का अभियान जो रूस और चीन ने आज से 7 साल पहले शुरु किया था अब परवान चढ़ने लगा है। अपितु यह मिशन अपने समय से बहुत पीछे चल रहा है। इसका एक कारण यह भी है की ब्रिक्स का मोदी के सत्ता सँभालने के बाद कमज़ोर हो जाना और बिखरने के कगार तक पहुँच जाना मुद्रा युद्ध में चीन रूस के प्रयासों को आघात पहुंचने जैसा साबित हुआ।
व्यापार युद्ध और मुद्रा युद्ध के इस दौर में चीन के रेशमी मार्ग के लगातार विस्तार के कारण एशिया के देशों में बर्मा बांग्लादेश थाईलैंड पाकिस्तान कजाकिस्तान किर्गिस्तान पाकिस्तान अफगानिस्तान भारत चीन कोरिया आदि इस व्यापार मार्ग से जुड़ने के कारण इन देशों के आपसी व्यापार को विस्तार मिलेगा। और अपनी निजी मुद्रा के चलन को बढ़ाने में आसानी होगी जिस प्रकार चीन ने अपने खजाने में सोने की बढ़त 70% तक पहुंचा दी है और तुर्की जैसे देश डॉलर के बदले अपने खजाने में सोना भरना शुरू कर दिया है। यह डॉलर राज के खात्मे के संकेत हैं।
रूस दुवारा भी संधियां भारत के साथ स्थानीय मुद्राओं में लेनदेन करते हुए रक्षा समझौतों के मेक इन इंडिया के तहत भारत को प्रस्तावना यह साबित करती है कि व्यापार और मुद्रा युद्ध में रूस और चीन एशिया के देशों के साथ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं ऐसे में अमेरिकी नीति अमेरिका की कंपनियों और यूरोप के लिए बहुत घातक साबित होंगे। रूस ने भारत की रक्षा ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए अगली पीढ़ी की ६ परमाणु पनडुब्बियों के भारत में ही निर्माण का प्रस्ताव भेजा है अब यह फैसला नरेंद्र मोदी सरकार पर निर्भर होगा कि वह भारत के हितों को सर्वोपरि मान कर रूस के साथ आगे बढ़ेंगे या फिर संघ के इजराइल प्रेम के साथ जाने का फैसला लेंगे।
अब अगर हम भारत की परंपरागत विदेश नीति पर नजर डालते हैं और ब्रिक्स के साथ भारत के हितों को जांच पड़ताल करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारत एक ऐसी भौगोलिक स्थिति में है जिसकी रूस को अत्याधिक जरूरत है वह भी एक मजबूत भारत के रूप में।
ज्ञात रहे कभी भी विदेशी रिश्तो पर संपूर्ण विश्वास नहीं किया जाता इसी कूटनीति के चलते चीन पर लगाम कसे रखने के लिए भारत को महाशक्ति के रूप में अगर कोई देखना चाहेगा तो वह रूस हो सकता है।
रूस की इस रूचि का यह भी एक बड़ा कारण है कि अगर कल सत्ता चीन में बदल जाती है और वह रूस के हितों की अनदेखी करता है तब रूस अपने साथ इस छोर पर भारत को खड़ा देखना चाहता है यही कारण है कि भारत के तमाम हित रक्षा समझौते को लेकर रूस के साथ ही मेल खाते हैं पश्चिमी दुनिया भारत को सिर्फ कंजूमर बाजार के रूप में देखना चाहती है पश्चिम जगत भारत को चीन की भांति एक आने वाले आर्थिक खतरे के रूप में भी आंकलन करती है।
अब एक बार फिर वापस अमेरिका की तरफ लौटते हैं। मैंने ऊपर से ज़िक्र किया था कि अमेरिका की बड़ी कंपनियों को नुकसान होगा और आम जनता को फायदा होगा, ट्रंप की नीतियों को बारीकी से अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि आयात शुल्क के कारण व्यापार युद्ध में बाकी के देश भी जवाबी कार्रवाई कर रहे हैं और करेंगे ऐसे में अमेरिकी कंपनी जो निर्यात करती हैं उन्हें भारी स्पर्धा मिलेगी।
चीन अपने बाजार को सस्ते और खुले तौर पर आगे बढ़ा रहा है जो आसानी से अमेरिकी कंपनियों के बाजार को हथिया लेगा ऐसी स्थिति में अमेरिकी कंपनियों को भारी घाटे की संभावना है। मगर अमेरिकी जनता को लाभ इस प्रकार होगा, इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि पिछले कई वर्षों से लगातार अमेरिका में वालस्ट्रीट के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन धरना प्रदर्शन चलता रहा है यह आंदोलन कंपनियों द्वारा आम जनता के शोषण के खिलाफ है
अगर ट्रंप इसी नीति पर चलते हैं तो ऐसे में अमेरिका के छोटे व्यापारी लघु उद्योग,छोटे बाजार है, पुनर्जीवित हो जाएंगे बड़ी कंपनियों पर आयात शुल्क बढ़ जाने के कारण माल मंगाना मंहगा हो जाएगा और पिछली सदी में जिस प्रकार छोटे व्यापारियों को बड़ी कंपनियों ने निपटान का काम किया है, पुनर्जीवित हो जाएगी ऐसे हालात में भारत को बेहद सतर्कता के साथ आगे बढ़ना होगा क्योंकि मेरा विश्लेषण कहता है कि अगर भारत किसी भी दबाव के कारण अंदरुनी या बहारी अमेरिका, इजराइल के साथ जाने का फैसले लेता है तो 5 वर्षों में भारत के लिए आत्मघाती साबित होगा